110किलोमीटर का हवाई जहाज(मेरा साइकिल) यात्रा....

110किलोमीटर का हवाई जहाज(मेरा साइकिल) यात्रा....

             विगत 11/04/2021(रविवार) को मैंने हवाई जहाज(मेरा साइकिल) यात्रा किया, जिसके दौरान दरभंगा जिला स्थित कतिपय अति महत्वपूर्ण पुरास्थलों और ऐतिहासिक मंदिरों का निरीक्षण किया।

          03-04वर्ष पूर्व से श्री अतुल कृष्ण हमारे मित्र(फेसबुक के माध्यम से) हैं। उन्होंने जब मुझसे दरभंगा जिला स्थित गंगेश्वर स्थान के सूर्य प्रतिमा के बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहा तब मुझे पता चला कि ये तो हमारे नजदीक के ही हैं। इन्होंने मुझे विगत 10फरवरी को मैसेज भेजा की, "प्रणाम सर, मेरा घर दरभंगा के जाले प्रखंड के रतनपुर गांव में है। यहां एक बहुत पुराना शिव मंदिर है, जो गंगेश्वर स्थान के नाम से जाना जाता है। यहां के मंदिर परिसर में एक मूर्ति रखी हुई है। लोग इसे "विष्णु भगवान" की मूर्ति मानकर पूजा करते हैं। पर मुझे ये भगवान सूर्य की मूर्ति लगती है। कृपया आप इस पर प्रकाश डालिए और एकबार आप स्वयं यहां आइए।" इस पर मैंने उन्हें उक्त सूर्य प्रतिमा से संबंधित विवरण दिए। साथ ही 11 अप्रैल को इस पुरास्थल के यात्रा के लिए सहमति बनी।

        यात्रा का आरंभ हायाघाट प्रखंड के आनंदपुर से हुआ। देवकुली, पंडासराय, बाकरगंज, हसन चक, होते हुए बागमती नदी के किनारे अवस्थित हजारी नाथ महादेव मंदिर, दिल्ली मोर, बिठौली चौक(अतरबेल) होते हुए सिंहवाड़ा पहुंचे जहां प्राचीन भारतीय इतिहास पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के तीन और पूर्ववर्ती छात्र यथा- अखिलेश कुमार, शेखर कुमार और मंटू कुमार शामिल हुए और यहां के बटेश्वर नाथ महादेव मंदिर, भरवारा, सनहपुर डीह होते हुए जाले प्रखंड अंतर्गत रतनपुर गांव स्थित गंगेश्वर नाथ महादेव मंदिर पर दिल्ली विवि के छात्र रहे अतुल कृष्ण और उनके ग्रामीण गुंजन कुमार इस यात्रा में शामिल हुए फिर बेदौली के विष्णु मंदिर, तत्पश्चात मां रत्नेश्वरी मंदिर रतनपुर होकर वापस आनंदपुर में 110 किलोमीटर के हमारे इस साइकिल यात्रा का विराम हुआ।

         हजारी नाथ महादेव मंदिर का मुख्य लिंग सफेद और हजारों गड्ढा युक्त है, जिसके कारण यह शिवलिंग "हजारी नाथ" के नाम से विख्यात है। बागमती नदी के किनारे अवस्थित यह शिवलिंग और सिंहवाड़ा के बुढनद नदी के किनारे स्थित बटेश्वर नाथ शिवलिंग अति महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह दोनों वृक्ष जीवाश्म प्रतीत होते हैं।

          प्रकृति में जीवाश्म बनने की क्रिया सतत चलती रहती है। जीवाश्म बनने के लिए यह जरूरी है कि वृक्षों या वृक्ष के भागों को मृत्यु या टूटने के तुरंत बाद पूरा का पूरा बिना किसी जीवाणु, कवक, या दीमकों के संपर्क में आए हुए मिट्टी या जल के नीचे दब जाना। अत्यधिक ठंड, अम्लीय जल और ऑक्सीजन की अनुपलब्धता आदि कार्य जैविक नमूने का विघटन होने से रोकते हैं। साथ ही ऐसी परिस्थिति में जैविक नमूने पर महीन बालू या गाढ़े कीचड़ का जमा होना जरूरी है। ऐसा प्रायः जलाशयों की तली में ही संभव हो पाता है। कभी कभार बाढ़ के दौरान भी यह स्थिति बन सकती है। दोनों जगहों की भौगोलिक परिदृश्य को देखें तो पाते हैं कि दोनों ही शिवलिंग नदी के किनारे से प्राप्त हुए हैं और इस क्षेत्र में बाढ की स्थिति तो सर्वविदित है। शिवलिंग के अलावे हजारी नाथ महादेव मंदिर की स्थानीय शैली सहित अन्य अवशेष भी महत्वपूर्ण है।

         वर्ष 2005 में निरीक्षण के दौरान पुरातत्वविद डॉक्टर फणीकांत मिश्र ने भी बटेश्वर नाथ शिवलिंग को अति महत्वपूर्ण बताया था। स्थानीय 80 वर्षीय श्री गोपाल पांडे बताए कि "जब मैं 13-14 वर्ष का था तो उस समय मंदिर के जीर्णोद्धार करवाए जाने के क्रम में मैं उस दिन यहां मजदूरी करने आया था। उसी क्रम में मंदिर जीर्णोद्धार में कार्य कर रहे अन्य मजदूरों ने विचार किया कि शिवलिंग को खोदकर देखा जाए कि यह अंदर कितना गहरा है। खोदने पर गहराई तो बहुत ज्यादा देखा गया, साथ ही यह लिंग अंदर से आसार के खत्म हो जाने के बाद बचे लकड़ी के मजबूत भाग(सारील) के तरह दिखता है।"

           बटेश्वर नाथ महादेव मंदिर परिसर में एक बलुआ पत्थर के मूर्ति खंड रखे हैं, जो अति प्राचीन है। फूल, अक्षत, धूप और पानी से हुए भीषण क्षरण के कारण मूर्ति पहचान में नहीं आ रहे हैं। 

          इसके उपरांत हमलोग जाले प्रखंड अंतर्गत रतनपुर गांव में स्थित "गंगेश्वर नाथ" महादेव मंदिर पहुंचे। यह पुरास्थल कर्नाट राज्य वंश के प्रसिद्ध राजा गंगदेव से संबंधित है। कर्नाट वंश के संस्थापक नान्यदेव थे। नान्यदेव एक महान शासक थे और उनका पुत्र गंगदेव एक योग्य शासक बना। कर्नाट वंश के शासनकाल को 'मिथिला का स्वर्णयुग' भी कहा जाता है। यह मंदिर एक अतिमहत्वपूर्ण और मनोरम तीर्थ स्थल है। यहां के मुख्य मंदिर का निर्माण स्थानीय तिरहुत शैली में किया गया है। इस गांव के बारे में मान्यता है कि रतन सेन राजा ने यह गांव बसाया था। इस मंदिर में मौजूद गणेश प्रतिमा और सूर्य प्रतिमा अति महत्वपूर्ण, प्राचीन और भव्य है। यह दोनों प्रतिमा 9वीं-10वीं शताब्दी के आसपास की है। सूर्य प्रकृति की आदिम शक्तियों में से एक हैं। आकाश में प्रतिदिन प्राची में उदित होने वाले सूर्य को आदिम समय के मनुष्यों ने आश्चर्य-मिश्रित-आदर से देखा होगा। उसने यह भी देखा होगा कि सूर्य अपने प्रकाश से सारे जगत को दीप्त कर देता है। उसके निकलते ही अंधकार नष्ट हो जाता है। छाया में नष्ट होने वाली और सूर्य के ताप में स्वस्थ रहने वाली वस्तुओं के ज्ञान ने आदिम मानव को सूर्य के स्वास्थ्यवर्धक गुणों से भी परिचित करा दिया होगा। अतः सूर्य उन प्राकृतिक शक्तियों में से हैं, जिसे मनुष्यों ने सबसे पहले देवत्व प्रदान किया। इसी कारण सूर्योपासना की परंपरा संसार के अनेक प्राचीन सभ्यताओं में प्रचलित रही। अनेक देवताओं की प्रतिष्ठा बनती बिगड़ती रही परंतु सूर्य को सर्वत्र सम्मान मिलता रहा। जिसमें मिथिला प्रक्षेत्र अग्रणी भूमिका में है। यहां मनाया जाने वाला सूर्योपासना परंपरा का द्योतक छठ महापर्व संसार के सामने एक सर्वोत्तम उदाहरण है। इसीलिए मिथिला प्रक्षेत्र में सूर्य प्रतिमा का बहुलता स्पष्ट देखा जाता है। गंगेश्वर स्थान के सूर्य प्रतिमा में भगवान सूर्य अपने रथ पर विराजमान हैं। रथ के सात घोड़े और उनका सारथी 'अरुण' नीचे की तरफ देखे जा सकते हैं। भगवान सूर्य के दोनों हाथ में कमल पुष्प है। उसके ऊपर दोनों तरफ हाथ में माला लिए गंधर्वों को दर्शाया गया है। लंबी मुकुट, कानों में कुंडल और गले में हार इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। सबसे नीचे सूर्य की दाईं ओर उषा और बायीं ओर प्रत्युषा विराजमान हैं जिन्हें भगवान सूर्य की पत्नी माना जाता है। बगल में बाएं तरफ 'दंडी' अपने हाथ में डंड लिए खड़ा है और दाहिने तरफ 'पिंगल' हैं। इस प्रतिमा में अन्य प्रतिमाओं की तरह पिंगल के दाढ़ी का अंकन नहीं है। भविष्य पुराण में 'दंड' को स्कंद और 'पिंगल' को अग्नि का रूप बताया गया है। यहां के प्रतिमाओं में हो रहे क्षरण को देखते हुए मैंने मुख्य पुजारी को प्रतिमा सुरक्षित रखने के लिए कई दिशा निर्देश दिए साथ ही प्रतिमाओं को कांच के सोकेश बना कर ढकने के लिए कहा। हमारे इस प्रस्ताव को पुजारी ने शीघ्र पूरा करने के लिए आश्वासन दिया है। इस पुरास्थल पर इन दोनों प्रतिमाओं के अलावा वराह मुख प्रणाल, एक खंडित जलधरी और कतिपय विशाल प्रस्तर खंड बिखरे पड़े हैं। इस परिसर में मौजूद भालसरी फुल का विशाल पेड़ मंत्रमुग्ध कर देता है। मिथिला परिक्षेत्र में पूजा अर्चना के साथ फूल के माला के निर्माण में भालसरी के फूल का विशेष महत्व है। इस फूल का खासियत होता है कि यह जल्दी मुरझाता नहीं है। इस पेड़ का मोटाई 20 फीट 8 इंच है। यह पेड़ यहां के अलावे दरभंगा राज परिषर में कंकाली मंदिर के पास और MLS संग्रहालय, दरभंगा के मुख्य द्वार पर भी है। एक विशाल पेड़ मधुबनी जिला अंतर्गत बेनीपट्टी के शिवनगर गांव के गांडीवेश्वर स्थान में भी था जो अभी समाप्त हो चुका है।

         इसके बाद हमलोग गंगेश्वर स्थान से महज 1 किलोमीटर ही दूर बेदौली चौक पर स्थित मंदिर में स्थापित भव्य विष्णु प्रतिमा जो नजदीक के ही खेत से जुताई के क्रम में लगभग 15 वर्ष पूर्व मिला था, उसके निरीक्षण के लिए पहुंचे। यह प्रतिमा स्थानीय कर्नाट शैली में बना हुआ है जो 12वीं-13वीं शताब्दी की हो सकती है। बृहद संहिता(58/34) का कथन है कि विष्णु यदि चार भुजा वाले हों तो उनके तीन हाथों में शंख, चक्र तथा गदा रहती है और चौथा हाथ शांति मुद्रा में रहता है। वही विष्णु पुराण(1/9/67) "तं दृष्टवा वै तदा देवाः शंखचक्रगदाधरम्" से भी स्पष्ट होता है। कमलासन पर खड़े, लंबी किरीट मुकुट धारण किए इस चतुर्भुज विष्णु के दाहिने ऊपर के हाथ में गदा, निचला हाथ वरद मुद्रा में, ऊपर के बाएं हाथ में चक्र और नीचे के हाथ में शंख का अंकन स्पष्ट देखा जा सकता है। साथ ही इनको रत्न, कुंडल, वैजयंती माला, यज्ञोपवीत, बाजूबंद, कमरबंद आदि वस्त्राभूषण से सुसज्जित किया गया है। प्रतिमा के बाईं ओर सरस्वती और दाईं ओर लक्ष्मी के साथ-साथ नीचे गरुड़ एवं दान दाता सहित ऊपर गज-व्याल, गंधर्वों का अंकन सुव्यवस्थित और स्पष्ट रूप से किया गया है। इस प्रतिमा के लिए सबसे खास बात यह है कि मुख्य पुजारी श्री दिलीप झा और सेवक संत कुमार साह ने अभी तक इस प्रतिमा को चंदन, जल, अक्षत, फूल आदि से दूर रखा है जिससे प्रतिमा की भव्यता अभी तक बनी हुई है। इनसे सभी मंदिरों के व्यवस्थापकों को सीख लेना चाहिए। 

           रतनपुर गांव में ही वैष्णवी देवी रत्नेश्वरी का दिव्य स्थान और मंदिर है। जहां दूर-दूर से भक्त आते रहते हैं। यह मंदिर एक अति महत्वपूर्ण पुरास्थल पर स्थित है, जिसका ऊंचाई लगभग 20 फीट है। पुजारी कृष्ण मुरारी ठाकुर बताए कि मंदिर के नीव देने के वक्त कई प्रकार के मिट्टी से निर्मित कलाकृतियां(टेराकोटा) मिला था। यहां से प्राप्त एक ईंट जो 26सेमी लंबा, 21सेमी चौड़ा और 5.5सेमी मोटा है, यह काल गणना में मदद करता है। क्योंकि इसी प्रकार का एक ईंट दरभंगा जिला के घनश्यामपुर प्रखंड के हरद्वार गांव और बहेरी प्रखंड के भच्छी गांव से भी प्राप्त हो चुके हैं। तदुप्रांत ग्रामीण मित्र श्री अतुल कृष्ण जी के यहां थोड़ी देर रुके और नाश्ता करते हुए इनके हवेली का भी निरीक्षण किया, जो लगभग 150 वर्ष प्राचीन है। इस हवेली के भवन का निर्माण शैली तत्कालीन भवनों के उत्कृष्टतम उदाहरण हैं। यहां के बाद सभी अपने-अपने गंतव्य को प्रस्थान कर गए।

                                    :-मुरारी कुमार झा(पुरातत्व)

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