एक विशिष्ट "दान"

           प्राचीन भारतीय इतिहास पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, कामेश्वर नगर दरभंगा, को सुपुर्द किया गया लाखों वर्ष प्राचीन "बहुमूल्य वृक्ष जीवाश्म"
             दिनांक 16/08/2021 को पूर्व विभागाध्यक्ष(प्रा भा इ पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग) डा अयोध्या नाथ झा के द्वारा श्री वशिष्ठ नारायण झा(से नि प्रधान मुख्य वन संरक्षक, बिहार) के सौजन्य(इन्होंने विभाग को दान दिया है।) से प्राप्त वृक्ष जीवाश्म को प्राचीन भारतीय इतिहास पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग को सुपुर्द किया गया।

            उक्त ख़बर पाकर मैं निरीक्षण को विभाग पहुंचा..... जीवाश्म- "44सेमी व्यास और 139.5सेमी मोटाई के इस जीवाश्म के "वृक्ष वलय" विधि के अध्ययन से इसके लगभग 100 वर्षों तक के अवधि तक जीवित होने का मेरा अनुमान है। प्रकृति में जीवाश्म बनने की क्रिया सतत चलती रहती है। जीवाश्म बनने के लिए यह जरूरी है कि वृक्षों या वृक्ष के भागों को मृत्यु या टूटने के तुरंत बाद पूरा का पूरा बिना किसी जीवाणु, कवक, या दीमकों के संपर्क में आए हुए मिट्टी या जल के नीचे दब जाना। अत्यधिक ठंड, अम्लीय जल और ऑक्सीजन की अनुपलब्धता आदि कार्य जैविक नमूने का विघटन होने से रोकते हैं। साथ ही ऐसी परिस्थिति में जैविक नमूने पर महीन बालू या गाढ़े कीचड़ का जमा होना जरूरी है। ऐसा प्रायः जलाशयों की तली में ही संभव हो पाता है। कभी कभार बाढ़ के दौरान भी यह स्थिति बन सकती है। इन सभी क्रियाओं के साथ किसी वृक्ष को जीवाश्म बनने में लाखों वर्षों का समय लगता है। विभागीय विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए अध्ययन की दृष्टि से यह वृक्ष जीवाश्म अति विशिष्ट है।

         इस बाबत में पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ अयोध्यानाथ झा सर ने कहा कि- "यह वृक्ष जीवाश्म पुरातत्व के दृष्टिकोण से बड़ा ही महत्वपूर्ण है। खासकर के पुरातत्व के जो छात्र अनुसंधान और अनुशीलन में लगे हुए हैं, वे पृथ्वी के गर्भ में हो रहे परिवर्तनों का अध्ययन इस जीवाश्म के माध्यम से कर सकते हैं। पृथ्वी रत्नगर्भा है और अपने कोख में इस तरह के अनेकों बहुमूल्य पदार्थ संजोकर रखे हुए हैं। लाखों वर्षों के अनवरत प्रक्रिया के फलस्वरूप यह वृक्ष जीवाश्म इस स्वरूप में आया है। जब कोई मृत शरीर मिट्टी में दब जाता है तब उसके शरीर के नर्म भाग मिट्टी में मिल जाते हैं और उसके कठोर हिस्से धीरे-धीरे लाखों वर्षों की प्रक्रिया से गुजर कर पत्थर रूप में बदल जाते हैं। इनके अध्ययनों से हमें उन वस्तुओं या जीवों का पता चलता है जो या तो लुप्त हो गए हैं या उनका वर्तमान स्वरूप पर्याप्त परिवर्तित हो गया है। यह प्राचीन जीवाश्म वृक्ष के अवशेष हैं जो शिलाखंड हैं और अब पत्थर जैसे हो चुके हैं।

         विभागाध्यक्ष डॉक्टर उदय नारायण तिवारी ने धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि- "मैं अपने पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ झा और श्री वशिष्ठ नारायण झा जी, जिनके सौजन्य से यह महत्वपूर्ण जीवाश्म प्राप्त हुआ है इन दोनों को कोटिशः धन्यवाद देता हूं। इस बहुमूल्य योगदान के लिए विभाग सदा इन लोगों का आभारी रहेगा।

                                    :-मुरारी कुमार झा(पुरातत्व)

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